भूटान, एक भारतीय के तौर पर जब भी ये नाम कहीं पढ़ा तो इस देश से जुड़ी ऐसी जानकारियों के साथ जो इसके अनुभव को दूर दूर तक चरितार्थ नहीं करतीं, जैसे दुनिया का इकलौता देश जहाँ सिनमा हॉल नहीं हैं या फिर बिना ट्रैफ़िक सिग्नल की राष्ट्रीय राजधानी वाला दुनियाँ का अकेला देश, जिनको जानने के बाद किसी के भी मन में आम रूप से यही धारणा बनती है की शायद आज तक ग़रीबी के चलते भूटान को ये सब सुविधाएँ नहीं मिल पाईं होंगीं, मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ और मैंने पूरे भारत में व्याप्त ग़रीबी का जो रूप देखा उसी रूप में पूरे भूटान को भी अपने मन में सोच रखा था जब तक की भूटान को अपनी आँखों से नहीं देखा और जो वहाँ देखा वो उस सब से बहुत बहुत अलग था जो भूटान के बारे में मैंने तब तक सुनकर सोचा था।
मुझे भूटान हिमालय में बसी एक सपनों की दुनिया के जैसा लगा, जहाँ बस उतनी भौतिकता है जितनी ज़रूरी है, जहाँ जो नियम हैं उन्हें मानना ज़रूरी है, जहाँ राज नीतियाँ प्रकर्ती को मुख्य धारा में रखकर बनायीं गई हैं, जहाँ विकास के मापदंड आम भूटानी की भौतिक, आत्मिक और मानसिक ख़ुशी व स्वास्थ्य से जुड़े हैं, जहाँ आदमी शादी करके औरत के घर जाके रहता है और भी बहुत कुछ जो भूटान को जैसे सपनों का देश बनता है, कम से कम मेरे सपनों का।
भूटान के पास सिर्फ़ वही नहीं है जिसकी उसे आवश्यकता नहीं है।
ऐसा नहीं की भूटान जैसे हिमालय की कल्पना मैंने पहले की ही ना थी, निश्चित ही हिमालय की सुंदरता लोगों की या देशों की मोहताज नहीं है और सम्पूर्ण हिमालय में बिखरी पड़ी है पर ये समझना भी मुश्किल नहीं है की अलग अलग लोगों की मानसिकता और देशों की नितीयाँ प्रकर्ती का रंग, रूख और भविष्य तय करती हैं।
मैंने जितना भी हिमालय भारत में देखा और उसके संरक्षित रूप के बारे में जो कुछ सोचा वो सब मैंने भूटान में प्रयोग में पाया।
मेरा भूटान जाना शायद २००८ में तभी तय हो गया था जब मैंने हिमालय से पहली मुलाक़ात की थी, समय के साथ जब ये ठान लिया की हिमालय का ओर छोर नापना है और वो भी तबियत से तो भूटान से भी अपनी मुलाक़ात तभी तय हो गयी थी और वो हुई जाके २०१९ के जून में जब मैंने हिमालयन मौंक राइडर्स एसोसियेशन (HMRA), जिसका मैं संस्थापक भी हूँ, के लिए भारत भूटान सड़क यात्रा का संचालन किया जिसमें मैंने दिल्ली से भूटान और फिर सिक्किम होते हुए वापस दिल्ली तक का क़रीबन ५००० किलोमीटर का सफ़र सड़क द्वारा तय किया कुछ २२ दिनों में जिसमें से भूटान से सम्बंधित यात्रा का संस्मरण और अपने अनुभव मैं यहाँ लिख रहा हूँ।
हालाँकी ज़रूरी नहीं है की भूटान के लिए दिल्ली से आप सड़क द्वारा ही जाएँ, आप सिलीगुड़ी के नज़दीक बाग़डोगरा तक हवायीजहाज़ से या नई जलपाईगुड़ी स्टेशन तक रेल से भी पहुँच सकते हैं और वहाँ से किराए पर वाहन लेकर सड़क द्वारा भूटान जा सकते हैं या फिर सीधे भूटान में पारो हवाई अड्डे पर ही उतरें और फिर सड़क यात्रा शुरू करें, ये सब पूरी तरह आपके पास उपलब्ध दिन, धन और आपके मन पर निर्भर करता है।
अगर मुझे १०० बार पूछा जाए कि कोई भी यात्रा मैं किस माध्यम या वाहन से करना चाहूँगा तो मैं ९५ बार मोटरसाइकल ही चुनूँगा, कुछ ऐसा अनुभव रहा हैं मेरा पूर्व यात्राओं का की मेरा बड़े पुरज़ोर तरीक़े से मानना है कि अगर आपको इंजिन वाली किसी चीज़ के सहारे घूमना है तो मोटरसाइकल से ज़्यादा स्वछंदता और ख़ास अनुभव आपको और कोई वाहन दे ही नहीं सकता।
तो भूटान रोड ट्रिप में मेरे साथी थे मेरी रॉयल एन्फ़ील्ड क्लासिक ५००, महिंद्रा स्कॉर्पीओ गेटअवे ४X४, भारत के अलग अलग कोनों से आए १० लोग और अब जब इसे लिख रहा हूँ तो आप भी अब साथ ही हैं।
इस यात्रा संस्मरण को आगे मैंने कुछ हिस्सों में विभाजित किया है जिनमें मेरा प्रयास रहेगा की पाठक भारत से भूटान की यात्रा के हर पहलू को विस्तार से समझ पाएँ और भूटान के मेरे अनुभवों से जुड़ी ज़रूरी जानकारियों को अपनी यात्रा की तैयारी के लिए आसानी से सहेज पाएँ और साथ ही मेरी कहानी से मनोरंजित भी हों।
तो चलिए चलते हैं भारत भूटान सड़क यात्रा २०१९ के रोमांचक सफ़र पर।
एक बहुत लम्बा और उबाऊ सफ़र!
अगर आप भारतीय वाहन से भूटान की यात्रा करने का विचार बना रहे हैं तो एक बात गाँठ बाँध कर रख लें की आपको पश्चिम बंगाल के शहर सिलीगुड़ी होके ही जाना होगा अब सिलीगुड़ी चाहे आप उड़ के पहुँचें, रेल से पहुँचें या सड़क से।
जैसा कि मैंने ऊपर बताया था कि आप सीधे भूटान के नगर पारो भी उड़ के पहुँच सकते हैं और अपने कुछ दिन बचा सकते हैं पर जो आनंद घर से घर तक के सड़क सफ़र का अपने वाहन में होता है उसकी तुलना निश्चित ही मुश्किल है।
दिल्ली से सिलीगुड़ी की दूरी लगभग १४०० किलोमीटर है जिसे मेरे विचार में २ से लेके ४ दिनों में पूरा किया जा सकता है, मैंने ये रास्ता आते जाते दोनों बार ३ दिन और २ रातों में पूरा किया।
आम तौर पर दिल्ली से सिलीगुड़ी आप उत्तर प्रदेश के आगरा, लखनऊ, अयोध्या, गोरखपुर और फिर बिहार के दरभंगा, किशनगंज हो कर जा सकते हैं जिसके बाद आप पश्चिम बंगाल में प्रवेश कर जाते हैं।
हमारी यात्रा जाते समय दिल्ली से कुछ देर से शुरू हुई जिस कारण हम रात होते होते आगरा ही पहुँच पाए जहाँ हमने रात्रि विश्राम किया।
मेरा मानना है कि यदि सुबह समय से शुरू किया जाए दिल्ली से तो लखनऊ आराम से पहुँचा जा सकता है, जहाँ से अगले दिन गोरखपुर और फिर तीसरे दिन शाम तक आराम से सिलीगुड़ी पहुँचा जा सकता है, अगर समय है तो आप एक और दिन भी लगा सकते हैं जो मेरे विचार में ज़रूरी नहीं है।
अगले दिन हम दिन भर चल कर रात में ठहरे देओरिया में जो की लगभग उत्तर प्रदेश और बिहार की सीमा पर स्थित है।
तीसरे दिन हम जो देओरिया से चले तो ठान लिया था की आज सिलीगुड़ी पहुँच ही जाना है।
देओरिया के बाद पश्चिम बंगाल से पहले बिहार का अच्छा ख़ासा लम्बा हिस्सा पार करना होता है जिसमें सड़क तो अच्छी है पर खाने पीने और रहने के साधन अत्यंत सीमित हैं, तो आप दूसरी रात बिहार के पहले ही कहीं बिता लें तो अच्छा है।
हम अपने तीसरे दिन, रात ११ बजे तक सिलीगुड़ी पार कर लिए थे, चूँकि सिलीगुड़ी में रहने के विकल्प उपलब्ध ना होने के कारण हमने अपनी मंज़िल जलपाईगुड़ी के एक होटेल को बनाया था जो तक़रीबन ४० किलोमीटर आगे था सिलीगुड़ी से तो हमारी यात्रा जारी थी।
तेज़ बारिश और तूफ़ानों से जूझते हुए हम रात २ बजे अपनी मंज़िल पर पहुँचे और दिल्ली से हमारा लम्बा और उबाऊ सफ़र ख़त्म हुआ।
बंगाल में बंगाली रोसोगुल्ला खाना ना भूलना!
सिलीगुड़ी पहुँचते ही आपका भूटान के लिए एक महत्वपूर्ण पड़ाव पार हो जाता है, आशा है आप सिलीगुड़ी में अपने रहने का इंतज़ाम पहले ही कर लेंगे वरना देर रात हमारी तरह सिलीगुड़ी से आगे कहीं जाना पड़ जाएगा।
सिलीगुड़ी भारत के दूसरे शहरों की तरह ही भीड़ भाड़ वाला एक शहर है जहाँ आप एक रात रुक के अगले दिन अपना सफ़र शुरू कर सकते हैं अगर ज़्यादा ही थके हुए ना हों, घूमने या देखने को वहाँ ज़्यादा कुछ ख़ास नहीं है।
हाँ बंगाल की मिठाइयाँ खाना ना भूलें ख़ास तौर से रोसोगुल्ला, हमने इसका भरपूर आनन्द लिया जलपाईगुड़ी में।
अब एक और बात गाँठ बाँध लें, भारत से भूटान प्रवेश करने का एक ही खुला और चालू रास्ता है जो जाता है भारत के जयगाँव से सटा भूटानी शहर फुनशोलिंग से।
जयगाँव और फुनशोलिंग जुड़वा शहरों की तरह हैं जहाँ दोनों देशों के लोग सुबह ७ बजे से रात १० बजे तक स्वछ्न्द रूप से इधर उधर आना जाना कर सकते हैं हालाँकि फुनशोलिंग से आगे जाने के लिए भारतीयों को भूटानी परमिट की आवश्यकता होती है।
सिलीगुड़ी से जयगाँव पहुँचने के भी दो अलग अलग मुख्य रास्ते हैं, जिसमें से एक को मैंने जाते समय और दूसरे को वापस आते समय लिया।
एक रास्ता है जलपाईगुड़ी से जो हमने जाते समय लिया और दूसरा है सेवक से कोरोनेशन पुल होते हुए, हालाँकि दोनों रास्ते बीरपारा के पास जाके मिल जाते हैं जहाँ से जयगाँव कुछ ४० किलोमीटर रह जाता है। दोनों ही रास्तों से सिलीगुड़ी से जयगाँव की दूरी लगभग १५० किलोमीटर ही है पर सेवक वाला रास्ता निश्चित तौर पर बेहतर, कम भीड़ भाड़ वाला और मनमोहक है जिसमें आपको सड़क किनारे ही बंगाल के प्रसिद्ध चाय बाग़ान और जंगल देखने को मिलते हैं।
अब भले ही आप कोई भी रास्ता लें आपको सिलीगुड़ी से जयगाँव पहुँचने में ४-५ घंटों से ज़्यादा नहीं लगने चाहिए।
हम चूँकि सिलीगुड़ी पहुँचने वाले दिन होटेल ना मिलने के कारण जलपाईगुड़ी पहुँच गए थे तो हमने वही रास्ता आगे जयगाँव-फुनशोलिंग के लिए अगले दिन आराम करने के बाद तीसरे दिन लिया, रास्ता बीच बीच में टूटा हुआ और यातायात से भरपूर था तो हम दिन में लगभग १ बजे शुरू करके तक़रीबन शाम ६ बजे जयगाँव पहुँचे जहाँ हमारे रुकने की व्यवस्था पहले से थी।
जयगाँव में आपको रुकने के लिए फुनशोलिंग से सस्ते विकल्प मिल सकते हैं पर मेरे अनुभव के अनुसार रुकने के लिए जयगाँव की तुलना में फुनशोलिंग कहीं बेहतर विकल्प है जिसके कई कारणों में से सबसे ऊपर है अगली सुबह परमिट मिलने की आसानी जिसकी विस्त्तृत चर्चा मैं अगले हिस्से में करूँगा।
मुस्कुराइए जनाब, आप भूटान में हैं!
भारत के लखनऊ शहर की ये प्रसिद्ध कहावत मुझे भूटान में पहुँच कर के पूर्ण चरितार्थ लगी।
भूटान पहली नज़र में ही आपका मन मोह लेता है और आपके मुख पर एक विस्मयकारी मुस्कान बिखेर देता है।
जयगाँव से फुनशोलिंग में प्रवेश करते ही आपको एहसास हो जाता है की ये भारत से बहुत अलग जगह है जहाँ शांती, यातायात के नियम और प्रकर्ती की महत्वता सर्वोपरि है।
एक बहुत दिलचस्प बात जो आप पूरे भूटान के शहरी इलाक़ों में देखते हैं वो यहाँ के मकानों की बाहरी बनावट जो लगभग एक जैसी ही होती है चाहे घर हों, दफ़्तर हों या होटेल, बाद में मुझे पता चला की ये वहाँ की सरकार के आदेश के कारण है जो निर्माण की अनुमति तब ही देती है जब उसकी बतायी बनावट का पालन किया गया हो।
एक ज़रूरी बात ये की भूटान में आम दुकानदार नोटबंदी के बाद से ५०० और उस से बड़े भारतीय रुपए के नोट नहीं लेते हैं, तो आप जितना भारतीय रुपया ले जाना चाहते हों उसे जयगाँव या उस से पहले ही कहीं निकाल लें और १०० व २०० के नोट छोड़कर बाक़ी को भूटानी निगुलतरम जो की भारतीय रुपए के बराबर ही होता है बदलवा लें, ये आप फुनशोलिंग में भी कर सकते हैं और थिंपू या पारो में भी।
जयगाँव एक बड़ा बाज़ार है जहाँ आप हर उस तरह के समान की ख़रीददारी कर सकते हैं जो आप यात्रा के लिए लाना भूल गए हों।
जयगाँव से फुनशोलिंग में प्रवेश करने के दो द्वार हैं, एक मुख्य द्वार है जहाँ से बड़े वाहन जैसे ट्रक और पैदल लोग जा सकते हैं, इस द्वार से आप फुनशोलिंग के मुख्य बाज़ार में पहुँच जाते हो जहाँ थोड़ा आगे चलकर दाएँ में ही परमिट ऑफ़िस भी है।दूसरा द्वार जिसके लिए प्रमुख द्वार के सामने के रास्ते से होकर जाते हैं हल्के वाहन जैसे कार और मोटरसाइकल के लिए है, पैदल आप इस रास्ते से भी जा सकते हैं जिसका हालाँकि कोई औचित्य नहीं होता क्यूँकि ये रास्ता आपको बहुत घुमा के मुख्य बाज़ार में ही पहुँचाता है।
अब अगर आप अपने वाहन से भूटान में प्रवेश कर रहे हैं तो एक तो सीटबेल्ट/हेलमेट लगा लें वरना आपको प्रवेश से पहले ही रोक लिया जाएगा, दूसरा ये अच्छे से समझ लें की भूटान के शहरों में आगे वाली गाड़ी को पार करना जिसे ओवेरटेकिंग कहते हैं प्रतिबंधित है और इस बात को आप भूटान के अपने सम्पूर्ण प्रवास के दौरान कंठस्थ रखें। तीसरा बाज़ार में प्रवेश के बाद वाहन पार्किंग की जगह ढूँढें, भूटान में आप शहरों में कहीं भी गाड़ी खड़ी नहीं कर सकते, बाज़ारों में पार्किग कोई एक जगह भी नहीं होती बल्कि उसके लिए सड़क के किनारों पर ही सफ़ेद पट्टी से रेखांकित की हुई जगह होती हैं, चार पहिया के लिए अलग और दो पहिया के लिए अलग। तो फिर कोई ख़ाली जगह ढूँढिए और अपना वाहन वहाँ लगाइए वरना आपको पुलिस या स्थानीय आपको तुरंत टोक देंगे या फिर लौटने पर आप चालान भरते हुए देखे जाएँगे।
पैदल चलने के भी भूटान में सख़्त नियम हैं, नियम वही भारत वाले हैं पर भूटान में आपको उन पर अमल करना होता है वरना आम भूटानी ही आपको टोक देगा। आपको सड़कों के किनारे बने फुटपाथ पर चलना होता है और सड़क पार करने के लिए ज़ेब्रा क्रॉसिंग का इस्तेमाल करना होता है चूँकि भूटान में कहीं ट्रैफ़िक बत्तियाँ नहीं हैं तो सभी वाहन चालक एक अलिखित नियम का पालन करते हैं जिसका नाम है ‘पहले आप’।
जब भी कोई वाहनचालक पैदल सड़क पार करने वालों को देखता है वो वाहन रोक देता है जब तक की वो सड़क पार ना कर लें, ऐसा ही तब होता है जब किसी दूसरे तरफ़ की सड़क के वाहन को मोड़ लेना हो।इसी ‘पहले आप’ वाले नियम के चलते भूटान को यातायात बत्तियों की आवश्यकता नहीं है और सारा यातायात अविरल तरीक़े से चलता रहता है, आप ग़ौर करें की अपनी भूटानी प्रवास के दौरान हमने कहीं भी जाम नहीं देखा।
अब बात करते हैं भूटानी परमिट की, तो एक भारतीय को जो अपने या किराए के भारतीय वाहन के साथ फुन शोलिंग से आगे जाना चाहता है उसे फुनशोलिंग से दो परमिट लेने होते हैं एक तो व्यक्तिगत और एक गाड़ी का।
व्यक्ति का परमिट सिर्फ़ पारो और थिंपू के लिए होता है, अगर उन्हें भूटान में दूसरी जगह जैसे पुनाखा भी देखना है तो थिंपू से दूसरा परमिट लेना होता है, हालाँकि गाड़ियों का परमिट एक ही बार में फुनशोलिंग में बन जाता है।
व्यक्ति के परमिट के लिए २ पासपोर्ट फ़ोटोग्राफ़ और पास्पोर्ट या वोटर कार्ड की छायाप्रति, टूर प्लान की प्रति और उसके हिसाब से भूटान प्रवास की सारी बुकिंग रसीदें चाहिए होती है, हालाँकि इस परमिट का अभी तक भारतियों को कोई शुल्क नहीं देना होता पर भूटानी सरकार के एक नए फ़रमान के अनुसार जुलाई २०२० से भारतियों वयस्कों को प्रति व्यक्ति प्रति दिन १२०० रुपए चुकाने होंगे, जबकि बच्चों को प्रतिदिन ६००। परमिट ऑफ़िस में आपको तीन चरणों से गुज़रना होता है जिसमें पहले में बाहर वाली डेस्क पर आपके काग़ज़ात देखे जाते हैं फिर अंदर बीयोमेटरिक्स और फ़ोटो लिया जाता है और तीसरे चरण में आप को परमिट देके बाहर भेज दिया जाता है।
वाहन परमिट के लिए वाहन का रजिस्ट्रेशन कार्ड, बीमा, पीयूसी, चालक का लाइसेंस और अगर वाहन का मालिक चालक नहीं है तो चालक के नाम का अथॉरिटी पत्र भरे हुए परमिट फ़ौर्म के साथ चाहिए होता है, इस सब के साथ १०० रुपए प्रति दिन प्रति वाहन का शुल्क भी देना होता है चाहे दो पहिया हो या चार पहिया।
अब जो ये सब काग़ज़ात आपके पास तैयार हों तो आप परमिट ऑफ़िस पहुँच सकते हैं, वहाँ पहुँच कर आपके पास दो रास्ते होते हैं या तो ख़ुद परमिट की विधि पूरी करें या किसी भूटानी गाइड जो आपको ऑफ़िस में ही मिल जाएँगे की मदद से परमिट लें, भूटानी गाइड आपका कुछ समय तो ज़रूर बचाते हैं पर इसके लिए वो आपसे प्रति व्यक्ति १०० से ५०० रुपए तक का शुल्क ले लेते हैं।
मेरी सलाह है की अगर आपके पास सारे काग़ज़ हैं तो दोनों परमिट कार्यालय से फ़ौर्म प्राप्त कर आप परमिट ख़ुद ही प्राप्त करें, आप परमिट प्रक्रिया के लिए कम से कम ३-४ घंटे का समय रख कर ज़रूर चलें और परमिट ऑफ़िस जो सुबह १० बजे खुलता है जितना जल्दी पहुँचें उतना अच्छा।
हम फुनशोलिंग में ये सोच कर घुसे थे की परमिट लेंगे और थिंपू के लिए रवाना हो जाएँगे पर इतने लोगों के परमिट और काग़ज़ात ठीक करने में हम कुछ ऐसा उलझे की भूटानी गाइड की मदद लेने के वाबजूद दिन का तीन बज गया और वो दफ़्तर जहाँ से हमें वाहनों का परमिट मिलना था बंद हो गया और फिर हमें उस रात फुनशोलिंग में ही रुकना पड़ा जो हालाँकि अनुभव के लिहाज़ से बेहतरीन हुआ क्यूँकि हमें फुनशोलिंग को ठीक से जानने का मौक़ा मिला। मुझे ये भी एहसास हुआ की अगर हम जयगाँव की बजाय फुनशोलिंग में ही आके रुकते तो कहीं बेहतर होता।
फुनशोलिंग महँगा है पर उतना भी नहीं, यहाँ रुकने के लिए कयी तरह के विकल्प उपलब्ध हैं जो आपको ख़ालिस भूटानी अनुभव देते हैं, यहाँ शाम बिताने के लिए भी जयगाँव से कहीं बेहतर विकल्प उपलब्ध हैं और सबसे बढ़कर फुनशोलिंग में रुकने से आपको सुबह परमिट ऑफ़िस पहुँचने में कम से कम १ घंटे की बचत होती है जो आपको समय से परमिट लेकर आगे निकलने के लिए बहुत अनुकूल हो सकती है।
अगर जयगाँव में कुछ काम भी हों तो वो आप वहाँ जाकर कर के वापस फुनशोलिंग आ सकते हैं रात तक या अगले दिन।
भूटान की एक और गाँठ बाँधने वाली बात है की ये तम्बाकू मुक्त देश है जिसका मतलब है की आपको यहाँ दुकानों पर भारत में मूलतः मिलने वाले सिगरेट, बिड़ी, गुट्खा इत्यादि नहीं मिलते हैं, हालाँकि आप भारत से ख़रीदकर साथ ले जा सकते हैं पर धूम्रपान करते समय आपको अत्यंत सावधान रहना होगा।
अगर फिर भी कमी पड़ जाए तो थिंपू और पारो के मुख्य बाज़ार में कुछ दुकानों पर ब्लैक में सिगरेट प्राप्त कर सकते हैं।
प्रतिबंधों और नियमों के साथ ही साथ भूटान का एक दूसरा पहलू भी है जो भारतीयों को बहुत अलग और दिलचस्प प्रतीत हो सकता है, भूटान में पेट्रोल और शराब भारत की तुलना में बहुत सस्ते हैं जिनका बड़ा हिस्सा भूटान भारत से ही ख़रीदता है। यहाँ तक की शराब बेचने के लिए भूटान में कोई ख़ास लाइसेंस नहीं लेना होता और ये आपको आसानी से लगभग हर किराने या खाने पीने की दुकानों पे उपलब्ध होती है।
आपकी सूक्ष्म जानकारी के लिए मेरे प्रवास के दौरान वहाँ पेट्रोल ५२ रुपए लीटर और किंगफिशर की बोतल ५० रुपए की थी।
तो हमारा बाक़ी का दिन गुज़रा फुनशोलिंग को देखने और ५०-५२ का हिसाब जानने में और शाम गुज़री भूटान को जानने में जिसमें हमारी मदद की हमारे होटेल के मालिक ने जिनसे हमें भूटानी रीति रिवाजों, रहन सहन और संस्कृति के बारे में गहरायी से जानने का मौक़ा मिला।मैं ये जानकर आश्चर्यचकित हो गया की भूटान में ज़्यादातर लड़के शादी के बाद लड़की के घर रहने लगते हैं और लड़की के पिता की सम्पत्ति के बनते हैं यानी कि भारत के तरीक़ों के बिलकुल उलट।
भूटानी पारम्परिक परिधान भी बाक़ी दुनिया से काफ़ी अलग है और ये परिधान आम जीवन में पूरी तरह आज भी चलन में हैं जिसे आज के आधुनिक समय में देख के काफ़ी आश्चर्य होता है!
हमें भूटान के पुराने और तात्कालिक राजाओं के बारे में भी जानकारी मिली और उनके द्वारा आम भूटानी नागरिक के जीवन में दिए जाने वाले दख़ल के बारे में भी जैसे राजा रानी की तस्वीर लगाना जो मुझे तात्कालिक भूटान का इकलौता सुधार योग्य आयाम लगा!
ख़ैर जब तक आम भूटानी को इस आज़ादी पर हमले से हर्ज नहीं तो मेरी राय कोई मायने नहीं रखती।
अगली सुबह हमारे भूटानी गाइड सारे परमिट लेकर के होटेल ही आ गए और हमने अपना सफ़र शुरू किया भूटान की तात्कालिक राजधानी थिंपू की तरफ़।
फुनशोलिंग से थिंपू तक़रीबन १४८ किलोमीटर है जिसे तय करने में किसी साधारण दिन पर आपको ५-६ घंटे लगते हैं पर अगर आपका दिन ख़ास है और आपको रास्ते में गहरी धुँध मिलती है जिससे मुलाक़ात हमारी आते समय हुई तो आपको ८-९ घंटे भी लग सकते हैं।
फुनशोलिंग से कुछ किलोमीटर चलते ही हिमालय के पहाड़ शुरू हो जाते हैं जो आपको हर मोड़ पर अद्भुत नज़ारे दिखाकर मंत्रमुग्ध रखते हैं। क़रीबन ४ किलोमीटर चलने पर आपको एक स्कूल दिखता है जिसके पास ही एक छोटा मैदान है, अगर मौसम साफ़ हो तो यहाँ से आप नीचे के भारतीय मैदानी इलाक़ों का बहुत दूर तक का नज़ारा देख सकते हैं, हम इस जगह पर एक स्थानीय के बताने पर शाम को आए थे और सूर्यास्त का बेहतरीन नज़ारे के गवाह बने थे।
कुछ और किलोमीटर चलने पर आपको चेकपोस्ट मिलती हैं जहाँ आपके और वाहन के परमिट जाँचे जाते हैं और ठीक पाए जाने पर एंट्री का ठप्पा लगा दिया जाता है जिसके बाद आप आगे जा सकते हैं।
हालाँकि थिंपू का रास्ता लगभग एक ही है पर फिर भी आपको फुनशोलिंग से भूटानी सिम ले लेनी चाहिए जो आपको पासपोर्ट/वोटर कार्ड और परमिट की प्रति देकर मिल जाती है। ये सिम जहाँ आपको क़रीबियों से सम्पर्क रखने के काम आएगी वहीं गूगल का नक़्शा देखने के लिए इंटरनेट भी प्रदान करेगी जिस से आपको शहरों में रास्ते ढूँढने में निश्चित ही मदद मिलेगी।
यूँ तो ज़्यादातर शहरी भूटानी लोग हिंदी और अंग्रेज़ी समझ और बोल लेते हैं पर शहरों के अलावा आपको लोग ढूँढने में मुश्किल हो सकती है।
भूटान के सभी हाइवे सड़क २ लेन की हैं जिनमें डिवाइडर नहीं है, इसलिए आपको काफ़ी सावधानी से वाहन चलना होता है पर इसमें गड्ढे ना के बराबर हैं और सड़क की गुणवत्ता बहुत अच्छी है।
प्रमुख शहरों में आपको हालाँकि ४ लेन की सड़क मिल जातीं हैं।
उस दिन हमारी यात्रा काफ़ी सुगम थी पर एक बड़ा दिलचस्प वाकया हुआ, मैंने सभी मोटरसाइकल चालकों को गाड़ी की प्रमुख लाइट चालू रखने बोला था ताकि मैं उन्हें अपनी मोटरसाइकल के काँच में पीछे आता आसानी से देख सकूँ ऐसा हमेशा करता रहा हूँ जब भी वाहनों का जत्था मेरे पीछे होता है, तो हमें रास्ते में कुछ लोगों ने टोका पर हम गति के कारण उनकी बात नहीं समझ पाए फिर जब कुछ आगे जाकर एक छोटे से शहर में मैंने विराम लिया तो कुछ स्थानीय मेरे पास आए और उन्होंने गाड़ी की लाइट बंद करने को कहा, पूछने पर उन्होंने बताया की भूटान में दिन के समय गाड़ी की लाइट जलना आपातकाल स्तिथी का सूचक होता है।
एक और बात जो मैंने अनुभव की, इस रास्ते पर शाकाहारी खाने के विकल्प बहुत कम हैं और हमें दोपहेर के भोजन के लिए काफ़ी मशक़्क़त करनी पड़ी, तो मेरी सलाह रहेगी की अगर आप याक का माँस नहीं खाना चाहते तो जो पहला विकल्प मिले वहाँ खाना खा लें।
थिंपू पहुँचने से कुछ २०-२२ किलोमीटर पहले पारो का रास्ता बायीं ओर मुड़ता है जिसे हमने बाद में करने का तय किया था।
शाम के कोई ५ बजे के आस पास हमने थिंपू में प्रवेश किया और सीधे अपने पहले से तय होमेस्टे में पहुँच गए।
थिंपू भूटान की राष्ट्रीय राजधानी होने के साथ साथ मेरे अनुभव में सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण नगर भी है। यहाँ आपको रहने के लिए दो विकल्प हैं या तो मुख्य बाज़ार के आसपास या उस से थोड़ा दूर, दूर रहने पर आप कुछ धन बचा सकते है।
हालाँकि अगर आप भारतीय खाने ख़ास तौर पर रोटी के शौक़ीन हैं तो आपको थिंपू बाज़ार में कुछ मुश्किल आ सकती है, जो मेरा अनुभव रहा भूटान में खाना रहनें के तुलना में काफ़ी महँगा है और आप अगर भारतीय स्वाद के शौक़ीन हैं तो आपको थोड़ी निराशा हाथ लग सकती है।
उस शाम हमनें बाज़ार में एक रेस्तराँ में खाया पिया और फिर वापस अपने निवास पहुँच कर आराम किया।
अगले दिन हमें थिंपू से परमिट लेकर पुनाखा होकर फोबजीका पहुँचना था।
मेरे विचार में थिंपू में कम से कम दो दिन तो आपको रुकना ही चाहिए, हालाँकि योजना तो हमारी भी कुछ ऐसी ही थी पर फुनशोलिंग परमिट की वजह से हमारा एक दिन वहीं लग गया और अपनी आगे के यात्रक्रम को बनाए रखने के लिए मैंने थिंपू मैं एक ही रात रुकने का निर्णय लिया।
सुबह की पहली किरण के समय जब आप थिंपू को देखते हैं तो अपने को इससे प्रेम में पड़ने से रोक नहीं पाते।
हमारी थिंपू की सुबह बेहद सुहानी थी, दूर दूर दिखते सुर्ख़ हरे घने जंगलों से पटे पहाड़ों के बीच जैसे एक बहुत ही बड़े मैदान में बसा है थिंपू जिसकी समुद्र तल से ऊँचायी लगभग २३३४ मीटर है, दिन का उजाला इसकी सुंदरता में कुछ नए ही आयाम जोड़ देता है।
हम में से ज़्यादातर थिंपू शहर के दर्शन को निकल गए थे जिसमें उन्हें एक स्थानीय टैक्सी ३-४ घंटों में थिंपू के प्रमुख स्थल जैसे ज़ोंग (शाही क़िले) और ल्हखाँग (मंदिर)।
भारत के कई ऊँचे हिमालयीन इलाक़ों की तरह समूचे भूटान में बुद्ध और उनके धर्म की गहरी छाप दिखायी पड़ती है और इस से समझ आता हैं भूटान का प्रकर्ती से गहरा लगाव।
मैं हालाँकि उस सुबह थिंपू से आगे के परमिट के लिए निकला था जो थिंपू के प्रमुख बाज़ार स्तिथ कार्यालय में एक फ़ौर्म भरकर और उसके साथ फुनशोलिंग परमिट, वोटर पहचान पत्र या पासपोर्ट की प्रतियाँ एक पासपोर्ट छायाचित्र के साथ वहाँ के अधिकारी को जमा करके प्राप्त करना होता है, हमारे पूछने पर अधिकारी ने २-३ घंटे का समय बताया था परमिट तैयार होने में पर हमारे अनुरोध करने पर उन्होंने हमें लगभग आधे घंटे में परमिट दे दिया।
परमिट लेकर के जब मैं वापिस हमारे निवास पहुँच तब तक बाक़ी साथी थिंपू दर्शन कर वापस आ चुके थे और नाश्ता कर रहे थे। हमने लगभग ११:३० बजे अपना सफ़र थिंपू से शुरू किया।
थिंपू में रास्ते ज़्यादा भ्रामक नहीं हैं फिर भी गूगल के नक़्शों ने हमें सही रास्ते ढूँढने में ज़बरदस्त मदद की।
थिंपू पार करते समय एक वाकया हुआ, वैसे तो हमारे दल में सबको ये साफ़ होता है की लीडर जो मैं था और सबसे आगे चल रहा था को जब तक वो ख़ुद नहीं इशारा करे पार नहीं करना होता है पर एक जगह जहाँ हमें दायाँ मोड़ लेना था मैं कुछ ज़्यादा धीमा हो गया और मेरे पीछे वाले एक साथी अपनी मोटरसाइकल से मुझे पार कर गए और मोड़ लेकर आगे बढ़ गए। उन्होंने तुरंत अपनी मोटरसाइकल धीमी आर ली ताकि मैं वापस उनसे आगे निकल जाऊँ जो हुआ भी, शायद एक क्षण को वो ये भूल गए थे की हम भूटान में हैं जहाँ नगरों में आगे के वाहन को पार करने की अनुमति नहीं है और एक बार उन्होंने ऐसा ख़ुद किया फिर मुझसे करवाया, वे भले ही भूल गए थे पर भूटान ने हमें ये तुरंत याद दिलाया!
थोड़ी ही देर में मुझे अपने काँच में एक भूटानी पुलिस वाला अपनी मोटर साइकल पर सायरन बजाता हुआ आता दिखने जिसने पास आकर मुझे रुकने का इशारा किया, रोक कर के उन्होंने मुझसे अंग्रेज़ी में पूछा की क्या मुझे पता नहीं है की भूटान में गाड़ी पार करना वर्जित है और क्यूँ ना मुझपर और मेरे साथी पर आर्थिक दंड लगाया जाए। जवाब मैंने उन्हें बताया की ये मोड़ लेने की हड़बड़ी में ग़लती से हुआ और हम भूटान के नियमों से पूरी तरह परिचित हैं और आगे इस बात का और कड़ी तौर पर पालन करेंगे, साथ ही मैंने उनसे अनुरोध किया की चूँकि हमारे पास मुद्राएँ सीमित हैं तो हमें क्षमा कर दें और दंड ना लगाएँ जिसे उन्होंने मान लिया और सलाह दी की अपने साथ एक स्थानीय भूटानी गाइड रखें। ध्यान दीजिएगा भूटान में ये हमारा पहला ही यातायात नियम का उल्लंघन था।
ख़ैर कुछ ही देर में हम पुनाखा की तरफ़ जाने वाले रास्ते पर चल रहे थे।
थिंपू से पुनाखा लगभग ८५ किलोमीटर है जिसके लिए पार करना होता है दोचूला, ये मूलतः एक दर्रा है जो थिंपू घाटी को पुनाखा घाटी से जोड़ता है और थिंपू से क़रीबन २४ किलोमीटर की दूरी पर स्तिथ है।
थिंपू से दोचूला तक चढ़ाई मिलती है और उसके बाद पुनाखा तक लगभग उतराई। सड़क लगभग गड्ढा रहित दो लेन की है और आप थिंपू के बाद पहला विराम लगभग १०-१२ किलोमीटर बाद परमिट चेकपोस्ट पर लेते हैं जहाँ आपके परमिट चेक कर उनपर प्रवेश का ठप्पा लगा दिया जाता है।
अगला विराम आप सीधे दोचूला टौप पर ले सकते हैं जो अपने आप में एक अविस्मरणीय अनुभव की तरह मुझे लगा।
समुद्र तल से लगभग ३१०० मीटर की ऊँचायी पर स्तिथ दोचूला से आपको खुली घाटियों के साथ अठखेली करते बादलों के बेहद ख़ूबसूरत प्राकर्तिक नज़ारे तो देखने को मिलते ही हैं पर साथ ही वहाँ देखने को मिलते हैं १०८ मानव निर्मित मठ जिन्हें २००३ में मारे गए भूटानी सैनिकों की याद में सड़क के बीचोंबीच बनवाया गया जो देखने में बेहद रमणीय और आध्यात्मिक नज़र आते हैं।
ये मठ भूटानी लोगों के लिए पवित्र स्थल हैं और इन्हें तीन तलों में बनाया गया है, पहले तल पर ४५, दूसरे पर ३६ और तीसरे और सबसे ऊपरी तल पर २७।
एक स्थानीय मान्यता है की अगर आप इन मठों के २१ चक्कर लगाएँ तो आपकी मनोकामना पूरी हो जाती है।
पिछले साल के आख़िर में ये मठ काफ़ी चर्चा का विषय बने जब एक भारतीय मोटरसाइकल चालक की मठ के ऊपर चढ़कर खिंची हुईं तस्वीरें और वीडियो वायरल हो गए और पर्यटकों द्वारा सीमाएँ लाँघने की चर्चा ने ख़ास तौर पर भूटान में ज़ोर पकड़ लिया, उस घटना के बाद ही परोक्षत: भूटान सरकार ने भारतियों व अन्य क्षेत्रीय पर्यटकों पर प्रति पर्यटक प्रति दिन शुल्क लगाने का निर्णय लिया जिसकी चर्चा मैंने पहले भी की थी।
भूटान की नियंत्रित पर्यटन की नीति हमेशा से साफ़ रही है जिसका असर वहाँ के वन्य भुभागों को देखकर ही लग जाता है जो कि मेरे विचार में एक उत्तम नीति है।
इन १०८ मठों के अलावा दोचूला पर ही स्तिथ है ड्रुक वांग्याल ल्हखाँग जो की एक बुद्ध मंदिर है।
दोचूला की सुंदरता निहारने के बाद हम कुछ १ बजे वहाँ से चले और तक़रीबन ३ बजे भूटान की प्राचीन राजधानी पुनाखा पहुँच गए जो दो नदियों के संगम पर बसा एक एतिहासिक भूटानी नगर है।
मुझे पुनाखा थिंपू की तुलना में कुछ गर्म जान पड़ा जिसका कारण समुद्र तल से इसकी कम ऊँचायी हो सकता है जो की १२४२ मीटर है।
पुनाखा अपने एतिहासिक और प्राचीन ज़ोंग यानी शाही क़िलों और ल्हखाँग यानी मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है जिनमें प्रमुख हैं पुनाखा ज़ोंग और चिमी ल्हखाँग।
हमें चूँकि शाम तक फोबजीका पहुँचना था जो पुनाखा से कुछ ७० किलोमीटर की दूरी पर था इसलिए हमने सिर्फ़ पुनाखा ज़ोंग देखा चिमी ल्हखाँग नहीं जो पुनाखा से १० किलोमीटर की दूरी पर स्तिथ है।
चिमी ल्हखाँग एक प्राचीन बुद्ध संत ड्रुकपा कुनले द्वारा स्तापिथ एक मठ है जिनको पागल लामा के रूप में भी जाना जाता है। इनके प्रभाव को आप पुनाखा के आस पास के क्षेत्र के कई घरों और दुकानों के बाहर पुरुष जननांग की उकेरे गए विचित्र चित्रों के रूप में देख सकते हैं जिससे उन संत के अनुसार सम्रद्धि आती है।
पुनाखा ज़ोंग के लिए नगर में घुसते ही बायीं ओर मुड़ना होता है जहाँ से वो कुछ ३ किलोमीटर की दूरी पर स्तिथ है।
पुनाखा ज़ोंग जो की एक बेहद ख़ूबसूरत भूभाग पर स्तिथ है जो दो नदियों फो चू और मो चू का संगम स्थल भी है भूटानी इतिहास, जीवटता और कलाकौशल की एक अभूतपूर्व मिसाल के तौर पर दिखता है।
इसे अच्छे से टिकट लेकर देखने में २-३ घंटों का समय लग सकता है जिसके कारण मेरी सलाह है की अगर आप पुनाखा रूक सकते हैं तो ये एक अच्छा निर्णय साबित होगा।
समय की कमी के कारण कोई ४ बजे हमने वहाँ से प्रस्थान किया और फोबजीका की तरफ़ अपनी यात्रा को आगे बढ़ाया।
सपनों जैसा रास्ता।
पुनाखा से कुछ आगे जहाँ हमने खाना खाया वहाँ मुझे एक बेहद ख़ूबसूरत व्यवस्था देखने को मिली, उस रेस्तराँ ने पीछे की तरफ़ एक बाड़ा जैसा बनाया हुआ था जिसे दो हिस्सों में बाँटा हुआ था, एक हिस्से में प्लास्टिक की बोतलें दो दूसरे हिस्से में काँच की बोतलें इकट्ठी की हुईं थीं, इस व्यवस्था को देखकर मुझे समझ आया की क्यूँ भूटान की सड़कें इतनी साफ़ सुथरी हैं, ये सरकार और नागरिकों की मिली जुले प्रयासों से है जिन दोनों की ही भारत में बेहद कमी नज़र आती है।
पुनाखा से फोबजीका घाटी का रास्ता हमें डूबते सूर्य के साथ सपनों जैसा जान पड़ा जिस पर पूरे रास्ते हमें कोई और वाहन ही नहीं मिला।
सड़क ज़्यादातर तो अच्छी है पर आख़िरी के १० किलोमीटर कुछ ज़्यादा तंग हो जाती है।
फोब्जिका एक लम्बी चौड़ी घाटी है जिसमें कई छोटे छोटे गाँव हैं।
हम रात ८ बजे के क़रीब वहाँ पहुँचे और फिर उस फ़ार्म हाउस जहाँ हमने बुकिंग की थी को ढूँढने के लिए क़िस्मत से मिले एक स्थानीय की सहायता ली क्यूँकि वहाँ गूगल भी भ्रमित लग रहा था।
फोबजीका भूटान की एक सुदूर जगह है जहाँ मोबाइल के सिग्नल भी काफ़ी कम आते हैं।
किसी तरह स्थानीय की सहायता से हम फ़ार्म हाउस तक पहुँचे जहाँ रहने वाले परिवार ने हमारा गरम जोशी से स्वागत किया।
ये फ़ार्म हाउस एक पारंपरिक ग्रामीण भूटानी घर था जिसका मालिक परिवार भी वहीं रहता था।
हमारी सारी व्यवस्थाएँ उस शाम वहाँ के मालिक की बेटी ने अपनी माँ और छोटी बहन के साथ मिलकर कीं और हमें कई भूटानी परम्पराओं से अवगत करवाया। भूटान में मुझे महसूस हुआ की ज़्यादातर व्यवस्थाएँ औरतें ही सम्हालती हैं जिस से वहाँ पुरुषों और महिलाओं में उच्च स्तर की बराबरी के भाव का बोध मिलता है।
एक बड़ी दिलचस्प बात उस रात हुई, मैंने जब अपना टेंट जिसे हम साथ लेकर चल रहे थे लगाने की इजाज़त माँगी तो उन्होंने मुझे ये कहकर मना कर दिया की सरकार द्वारा इसकी अनुमति नहीं है, जब मैंने कहा की यहाँ कौन देखेगा तो उन्होंने कहा हम तो देखेंगे!
इस से पता चलता है भूटान के सुदूर इलाक़ों में भी लोग नियमों के प्रति कितने सजग हैं, इस सजगता का प्रमुख कारण वहाँ गाँव गाँव तक पहुँची उच्च गुणवत्ता की शिक्षा ही प्रतीत होती है।
उनके घर में किसी को हिंदी नहीं आती थी पर सभी अंग्रेज़ी बोल और समझ लेते थे, हालाँकि मालिक की एक छोटी बेटी जिसकी उम्र ५-६ साल होगी ने उस शाम हमारे साथ हिंदी फ़िल्मों के गानों पर घूब ठुमके लगाके माहौल को मनोरंजक बना दिया था।
उस रात सुबह फोबजीका की ख़ूबसूरती देखने की बेचैनी के बीच बड़ी चैन की नींद आयी।
प्रकर्ती का अनूठा स्वर्ग फोबजीका घाटी।
सुबह उठकर जैसे ही फोबजीका घाटी का नज़ारा देखा तो उसकी ख़ूबसूरती देख मैं अवाक रह गया।
समुद्रतल से क़रीबन ३००० मीटर की ऊँचायी पर स्तिथ फोबजीका एक बेहद हरी भरी यू के आकार की खुली घाटी है जिसमें बेहद कम जनसख्या रहती है जिस कारण से ये एक अनछुए प्राकर्तिक स्वर्ग की तरह महसूस होती है।
मेरी इस यात्रा की तैयारी के दौरान मुझे पता लगा था की फोबजीका में भारतीय कम ही जाते हैं और यहाँ ट्रेकिंग की अपार सम्भावनाएँ हैं।
मेरी सलाह में फोबजीका में आप २ दिन आराम से लगा सकते हैं।
यहाँ रुकने के ज़्यादा विकल्प तो नहीं है पर कुछ छोटे रिज़ॉर्ट यहाँ हैं जो साधारण सुविधाएँ तो देते हैं पर आपको प्रतिदिन ३००० से ६००० प्रति कमरा चुकाना पड़ सकता है।
दूसरा विकल्प फ़ार्म स्टे हैं जहाँ रहना तो सस्ता हो सकता है पर खाना नहीं पर आपको ग्रामीण भूटानी रहन सहन क़रीब से देखने को मिलता है।
फोबजीका घाटी को थोड़ा बहुत घूमने के बाद हमने अपनी यात्रा अपने निवास से नाश्ते के बाद सुबह कोई ९ बजे शुरू की और पहले पहुँचे फोबजीका की एक पहाड़ी पर स्तिथ गंगटेंग गोंपा जो की भूटान के प्रमुख गोंपाओं में शामिल है, गोंपा वो मंदिर होते हैं जहाँ बुद्ध धर्म की पढ़ाई भी होती है।
गंगटेंग गोंपा से सटा हुआ है गंगटेंग गाँव जो बेहद ख़ूबसूरत दिखता है। यहाँ के बारे में एक बात प्रचिलत है की ठंडों में यहाँ तिब्बत से जब ब्लैक नेक्ड क्रेंस नाम के पक्षी प्रवास के लिए आते हैं तो आते और जाते समय ये गोंपा के तीन चक्कर लगाते हैं।
वहाँ कुछ समय बिताने के बाद हमने भूटान के दूसरे सबसे बड़े और महत्वपूर्ण नगर पारो की तरफ़ अपनी यात्रा आरम्भ की।
गंगटेंग से पारो क़रीबन १७० किलोमीटर है जिसके लिए पुनाखा और थिंपू होकर ही जाना होता है।
चूँकि हमारा अगले दिन भी पारो रुकने का तय था आज के दिन में हमें बस यात्रा करके पारो पहुँचना था।
फोबजीका से पुनाखा का रास्ता सुबह के समय करना एक अलग ही तरह का सुखद अनुभव था जिसमें कई ऐसे नज़ारे दिखे जो आते समय शाम के समय हमें नहीं दिखे थे।
कुछ ही घंटों में हम पुनाखा और दोचूला पार कर थिंपू का बायपास ले रहे थे जिस से हम सीधे फुनशोलिंग हाइवे पर पहुँच कर आगे जाकर पारो का मोड़ ले सकते थे।
थिंपू से पारो की तरफ़ जाते समय यातायात काफ़ी बढ़ जाता है जिसमें बड़ी संख्या में हमें भारतीय पर्यटक दिखे।
पारो से कुछ १० किलोमीटर पहले हमें पारो नदी एकदम सड़क किनारे दिखी जहाँ कई और पर्यटक भी रुके हुए थे।
हमने कुछ समय नदी किनारे बिताया और फिर अपनी यात्रा अंतिम चरण पारो की तरफ़ शुरू किया।
समुद्र तल से क़रीबन मीटर की ऊँचायी पर स्तिथ पारो में प्रवेश करते ही जो पहली चीज़ आपका ध्यान आकर्षित करती है वो है हवाई पट्टी जिसके बग़ल बग़ल में आप चल रहे होते हो, पारो में भूटान का इकलौता हवाई अड्डा है जहाँ आप दुनियाँ के विभिन्न प्रमुख हिस्सों से हवाई जहाज़ द्वारा पहुँच सकते हैं।
तक़रीबन ६ बजे शाम को हम अपने पारो के निवास स्थान पहुँच गए जिसके बाद बाक़ी शाम कुछ ने पारो बाज़ार घूमकर और कुछ ने होटेल में आराम करते हुए बितायी।
अगली सुबह हम में से ज़्यादातर लोगों के लिए रोमांचकारी थी क्यूँकि वो जाने वाले थे प्रसिद्ध चीता के घोंसले के ट्रेक के लिए।
ताकसंग गोंपा जिसे चीता का घोंसला भी कहते हैं पारो की हवाई अड्डे के बाद दूसरी सबसे महत्वपूर्ण जगह है।
ऐसी धारणा है की जब तब आप यहाँ का दर्शन नहीं करते तब तक आपकी भूटान यात्रा पूरी नहीं होती।
यहाँ पहुँचने के लिए आपको तक़रीबन ८ किलोमीटर कुल पैदल आना जाना करना होगा और कुछ ६०० रुपए का टिकट लेना होगा।
ये ट्रेक बेहद ख़ूबसूरत और शुरुआती दर्जे की कठिनता वाला है जिससे आप पारो से कुछ ७०० मीटर ऊपर ३१२० मीटर की ऊँचायी पर स्तिथ ताकसंग गोंपा पहुँचते हो जिसे एक खड़े पहाड़ में उकेर कर १६वीं शताब्दी में गुरु पद्मसम्भवा की याद में ग्यालसे तेंज़िन रबज्ञे ने बनवाया।
कहा जाता है गुरु पद्मसम्भवा जिन्होंने भूटान में बुद्ध धर्म की शुरुआत की मादा चीते की पीठ पर बैठकर तिब्बत से यहाँ आए थे और उन्होंने इसी जगह १३ गुफ़ाओं में साधना की थी।
मैंने हालाँकि स्वास्थ्य की परेशानी के चलते होटेल में ही आराम किया और इस ट्रेक पर नहीं गया।
शाम के समय मैंने पारो का बाज़ार घूमा और फिर ताकसंग गोंपा के ट्रेक की शुरुआत तक की मोटरसाइकल यात्रा की।
पारो का बाज़ार भी थिंपू की तरह ही बड़ा है जहाँ आप सबकुछ ख़रीद सकते हैं और खाने पीने की कुछ अच्छी जगहें भी आसानी से ढूँढ सकते हैं।
पारो के बाज़ार में मेरा एक काम था भूटानी मुद्रा का इंतज़ाम करना जिसके लिए एक तरीक़ा भारतीय स्टेट बैंक और पंजाब नैशनल बैंक के एटीएम हैं।
हालाँकि भारतीय डेबिट और क्रेडिट कार्ड भूटानी बैंक के एटीएम में काम नहीं करते पर ये भारतीय बैंक जिनके एटीएम थिंपू और पारो में मिल जाते हैं में काम कर जाते हैं।
हमारे दल के जो लोग ताकसंग ट्रेक पर सुबह ९ बजे निकले थे शाम ४ बजे तक होटेल वापस पहुँच गए थे।शाम का समय सबने अपने अपने ढंग से पारो के बाज़ार में बिताया और फिर सुबह की यात्रा के बारे में कुछ चर्चा कर रात्रि विश्राम किया।
पारो में मुझे ऐसा भी लगा की थिंपू की तुलना में ज़्यादा बेहतर भारतीय खाने के विकल्प उपलब्ध है जिसका कारण ज़्यादा संख्या में दिखने वाले भारतीय पर्यटक हो सकते हैं।
अपनी यात्रा में कुछ स्थानियों से चर्चा के दौरान मैंने ये जाना की भूटानी भारत देश का तो सम्मान करते हैं पर भारतीय पर्यटकों को ज़्यादा पसंद नहीं करते जिसके प्रमुख कारण उनका शोर करना और मोल भाव करना प्रतीत हुआ।
भूटानी आमतौर पर शांतीप्रिय लोग होते हैं जो बेहद कम और मीठा बोलना पसंद करते हैं, पर एक बात जो मुझे हर भूटानी के साथ एक जैसी दिखी वो है मुख पर मुस्कान।
रुकने के लिए विकल्प पारो में लगभग थिंपू की तरह ही हैं जिसमें आप या तो बाज़ार के आस पास रूक सकते हैं जो थोड़ा महँगा पड़ सकता है या फिर उस से थोड़ा दूर जहाँ आपको लगभग वैसी ही सुविधाएँ कुछ कम ख़र्च कर के मिल सकती हैं, हालाँकि ज़्यादा सस्ता यहाँ भी कुछ भी नहीं है।
पारो में भी दो दिन आसानी से बिताए जा सकते हैं, मेरे विचार में पूरा भूटान ही बड़े इत्मिनान से देखने की जगह है जहाँ आप ठहराव की मानसिकता में आ जाते हैं और लगने लगता है की जो है वो सही है, शायद यही कारण है की भूटान के लोग २०२० में भी लोकशाही की माँग ना करके राजशाही में ख़ुश हैं, शायद यहाँ की राजशाही को जीने, बल्कि ख़ुशी से जीने के सही सूत्र पता हैं जिनकी खोज अभी भी हमारे जैसी विशाल और महान लोकशाही वाले देश कर रहे हैं।
एक भारतीय के तौर पर मेरी नज़र में हमारे लिए सिर्फ़ ये बात गर्व की हो सकती है की भूटान ने जो समझा है और सीखा है वो प्रमुख रूप से भारत से ही सीखा है पर शायद उसने उन सीखों को हम से भी बेहतर समझ के सही तरीक़ों से पूरी तरह अमल में लाया और भूटान को एक संतोषी और प्रसनंचित्त देश बनाया जो हमें निश्चित तौर पर उससे सीखना होगा।
भूटान के दो अनमोल रतन फोबजीका और हा!
अगली सुबह जब मैं जब सोकर के उठा तो काफ़ी अच्छा महसूस कर रहा था और एक लम्बे मोटरसाइकल सफ़र के लिए एकदम तैयार था।
इस दिन हमारी योजना चेलेला होकर के हा घाटी जाने की थी जहाँ से हमें थिंपू फुनशोलिंग हाइवे को पकड़कर फुनशोलिंग और जयगाँव पार करके सिलीगुड़ी के रास्ते में जाके रुकना था।
ये सफ़र क़रीबन २६० किलोमीटर का था जो बाद में कुछ कारणों से ज़्यादा ही लम्बा महसूस हुआ।
मेरी सलाह रहेगी की आप या तो एक रात हा घाटी में बिताएँ या हा घूमते हुए फुनशोलिंग में अपनी रात बिताएँ जिस से की आपको भूटान में एक और रात काटने का और इससे अच्छे से विदा लेने का मौक़ा मिलता है।
हमारे क़रीबन ९ बजे सुबह शुरुआत करने के बाद मेरे दिमाग़ में बस चेलेला और हा थे।
चेलेला भूटान की सबसे ऊँची मोटर योग्य सड़क है जो समुद्र तल से क़रीबन ३९८८ मीटर पर पारो से कोई ४० किलोमीटर दूरी पर स्तिथ है और पारो घाटी को हा घाटी से जोड़ने वाला दर्रा है।
चेलेला के लिए पारो से दो रास्ते जाते हैं जिसमें से एक ताकसंग गोंपा के तरफ़ से और दूसरा हवाई अड्डे की तरफ़ से जाता है, हम हवाई अड्डे की तरफ़ से गए जो चेलेला जाने का हमें मिली जानकारी के हिसाब से बेहतर रास्ता भी था।
चेलेला टॉप तक का रास्ता भूटान के बाक़ी रास्तों की तरह अच्छा ही था आख़िरी के १-२ किलोमीटर छोड़कर जिनमें सड़क कुछ टूटी हुई थी।
चेलेला पहुँचने के रास्ते से पारो घाटी के कुछ बेहद सुंदर नज़ारे देखने को मिलते हैं।
चेलेला टॉप दोचूला की तरह खुली जगह नहीं है और एक संकरी से सड़क आप के हा घाटी के नज़ारों की तरफ़ ले जाती है।
कार्बन निगेटिव देश होने के कारण भूटान में दर्रों पर मौसम साफ़ होने पर बहुत दूर तक की चोटियों को देखा जा सकता है, हमें भी चेलेला पर प्रकर्ती का कुछ ऐसा ही आशीर्वाद प्राप्त जिस से सबके मन विस्मृत हो गए।
कुछ सुंदर पल कैमरों में क़ैद करके हमने चेलेला को पार कर हा घाटी की तरफ़ अपनी यात्रा प्रारंभ की।
चेलेला टॉप के बाद अच्छी सड़क बस कुछ ही दूर तक हमारे साथ रही जिसके बाद पहली बार भूटान में हमें कच्ची सड़क के दर्शन हुए, हालाँकि उसका कारण उस सड़क पर चल रहा चौड़ीकरण का कार्य था।
समुद्र तल से क़रीबन ३०५६ मीटर की ऊँचायी पर स्तिथ हा फोबजीका की ही तरह बेहद सुंदर पर कम खुली घाटी है।
यहाँ पर भी हमें रुकने के विकल्प कम ही दिखे पर प्रकृति की छटा अपने पूरे जलवे के साथ चारों ओर बिखरी दिखी, अगर आप के पास समय है और आप ट्रेकिंग के शौक़ीन हैं तो हा घाटी में आपके कुछ दिनों तक रोके रखने की असीमित छमताये मौजूद हैं।
कभी वापस आकर रुकने की इच्छा मन में समाए मैं अपने दल के साथ थिंपू फुनशोलिंग हाइवे की तरफ़ बढ़ गया जिस तक पहुँचने के लिए हमें कुछ ४०-४५ किलोमीटर का सफ़र कच्चे सड़क पर करना था।
भूटान को एक यात्रा में देख पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है!
ऊपर लिखे वाक्य को पढ़कर आपको हो सकता है किसी प्रसिद्ध हिंदी फ़िल्म की याद आयी हो पर ये भूटान के संदर्भ में एक दम सटीक बैठता है!
भूटान जैसे जाते समय आपको न्योता देता है वापस आने का और इसकी ख़ुशियों के रहस्यों को और गहरायी से जानने का।
हा घाटी से फुनशोलिंग हाइवे पर पहुँचकर मोटरसाइकल चलाते हुए मेरे दिमाग़ में यही सब चल रहा था, मैं सोच रहा था ताकसंग ट्रेक के बारे में और भूटान की उन जगहों के बारे में जहाँ मैं नहीं जा पाया।
पर साथ साथ ही मैं सोच रहा था आगे के रास्ते के बारे में जो हमें अभी तय करना था।
कच्चे रास्ते में पंचरों के कारण हुई देरी का परिणाम हमें फुनशोलिंग से पहले की पहाड़ियों में भुगतना पड़ा जहाँ ढलती शाम, हल्की बारिश और घनी धुँध ने कुछ ऐसा चक्रव्यूह रचा की २ घंटे का रास्ता ४-५ घंटों में तब्दील हो गया और सफ़र जान हथेली पर लेकर चलने जैसा हो गया।
धुँध कुछ ऐसी थी की एक दो मीटर से आगे का कुछ भी जान ना पड़ता था और अपने साथ ही मुझ पर ज़िम्मेदारी थी मेरे पीछे चल रही गाड़ियों की जो मेरे एक ग़लत मोड़ लेने पर काल के गाल में समा सकते थे।
ख़ैर संकट का ये समय मेरे हिमाचल प्रदेश के रोहतांग दर्रे के अनुभवों के सहारे पार हुआ जहाँ मैंने कई बार लगभग शून्य द्रश्यता में मोटरसाइकल चलायी थी, मेरी सलाह है की ऐसे हालातों में जितना हो सके धीमा चलें आखों के आगे चश्मा या हेलमेट का शीशा ना रखें और सड़क पर बनी सफ़ेद पट्टी के सहारे आगे बढ़ते रहें, आप पार अवश्य लग जाएँगे।
हम भी पार लग गए और कुछ ९ बजे रात तक फुनशोलिंग के पहले परमिट चौकी तक पहुँच गए जहाँ हमारे परमिट जमा हो गए और पासपोर्ट पर एग्ज़िट के ठप्पे लगा दिए गए।
चूँकि हमने उस रात की बुकिंग का सारा पैसा भरा हुआ था इसलिए हमारे लिए आगे बढ़ना आवश्यक था वरना उस समय की हमारी मानसिक और शारीरिक स्तिथी फुनशोलिंग या जयगाँव में रुकने की ही थी।
ख़ैर कुछ ही समय में हम फुनशोलिंग में प्रवेश कर रहे थे जहाँ सबसे पहले हमने अपनी गाड़ियों में भूटान का सस्ता तेल भरवाया और फिर बाज़ार में एक अल्प विराम लिया जहाँ सम्बंधित लोगों ने अपने लिए सुरा रूपी सस्ता भूटानी तेल लिया।
फुनशोलिंग से निकलते ही हमारे कान भारत के चिर परिचित यातायात के शोर से भर गए जिस से हम पिछले ६ दिनों से बहुत दूर थे।
मन में चल रहा था, तुम बहुत याद आओगे भूटान..हम जल्द फिर मिलेंगे।
रात अभी बाक़ी है मेरे दोस्त!
कुछ ऐसा ही महसूस हुआ उस रात हम सब को गाड़ियाँ चलाते चलाते।
लगता था जैसे मंज़िल कभी आएगी ही नहीं।
जैसे तैसे करते हम रात के कुछ ११:३० पर अपने होटेल पहुँचे जिसके बाद सबने फटाफट खाना खा के अपने अपने कमरों की तरफ़ रूख किया और बिस्तर में लम्बी तानी।
अगली सुबह हालाँकि ताज़गी से भरपूर थी!
लम्बी सड़क यात्राओं की ये ख़ास बात है की हर सुबह एक नई ताज़गी और ऊर्जा से भरपूर ही होती है जिसमें आपका मूड पिछली शाम से एकदम अलग होता है।
हम हसीमारा राष्ट्रीय उद्धान के क्षेत्र में रुके थे जो बंगाल का एक बेहद हरा भरा और बारिश से भरपूर इलाक़ा है।
रात को जो सफ़र हमें दुखदायी लग रहा था वही दिन में बेहद सुहावना प्रतीत होता था जिसका हम सबने ख़ूब आनंद लिया।
कुछ आगे जाकर हमने बीरपारा के बाद सेवक की तरफ़ का रास्ता लिया जो सड़क के आस पास बने चाय बाग़ानों की वजह से बेहद ख़ूबसूरत लगा। किसी जगह हम बाग़ानों के अंदर भी पहुँचे और अपना पहला ग्रुप चित्र सभी वाहनों के साथ खींचा।
इस सड़क पर हमें यातायात भी कम मिला और हल्की हल्की बारिश ने मौसम को बेहद सुहावना कर दिया था जिस से की हमारी सिलीगुड़ी तक की यात्रा काफ़ी ख़ुशनुमा रही।
अगर आपको सिक्किम जाना हो तो आप कोरोनेशन पुल से दाएँ मुड़ सकते हैं जबकि जबकि बायाँ मोड़ लेकर आप सिलीगुड़ी पहुँच जाते हैं।
हम शाम कुछ ४ बजे तक अपने पहले से बुक होटेल पहुँच गए।
हमारी योजना के अनुसार दल के कुछ लोगों को अगले दिन किराए की मोटरसाइकल वापस करके हवाई जहाज़ से घर वापस जाना था जबकि बाक़ी लोग अगले दिन से ६ दिन की सिक्किम यात्रा पर निकालने वाले थे जिनमें मैं भी था।
उस शाम हमने खाने के बाद एक छोटी सी बैठक की जिसमें अपने साथ बिताए पिछले कुछ दिनों की विवेचना की, एक दूसरे को सहयोग के लिए धन्यवाद दिया और ग़लतियों के लिए क्षमा माँगी।
अगली सुबह हमने तय कार्यक्रम के अनुसार घर जाने वालों से विदा ली और सिक्किम के अपने सफ़र की ओर बढ़ गए जिसकी चर्चा मैं नहीं कर रहा हूँ।
सिक्किम से वापस लौट कर हम ७वें दिन सिलीगुड़ी पहुँचे जहाँ से हमने लखनऊ तक का सफ़र लगातार किया।
लखनऊ में अगले दिन और रात आराम करने के बाद हम थोड़े अलग रास्ते से टोल नाके बचाते हुए दिल्ली के नज़दीक ग़ाज़ियाबाद पहुँचे जहाँ हमारे इस सफ़र की अधिकारिक समाप्ति हुई।
उस रात सोते समय मेरे मन में यही ख़याल आया था जो इस यात्रा संस्मरण का शीर्षक भी है
“भूटान ग़रीब देश नहीं बल्कि हिमालय में बसी सपनों की दुनिया है”